तबला संगत एक कला-अनुराग वर्मा       

                  


 सिद्धार्थ ओमर


 कानपुर । तबला वादक जब गायक गायिकाओं के साथ शास्त्रीय संगत करता है तो प्रायः पूर्व योजना अनुसार गायन एवं वादन मंच पर प्रस्तुत कर प्रशंसा प्राप्त कर लेते हैं। यह वास्तव में संगत नहीं है यह तो योजनाबद्ध रटी रटाई संगत कही जा सकती है। इस संबंध में पंडित दीनदयाल उपाध्याय इंटर कॉलेज कानपुर के संगीत शिक्षक तबला वादक अनुराग वर्मा ने बताया कि वास्तविक संगत वह है जब कोई अपरिचित कलाकार अपनी गायन प्रस्तुति को अपने राग में डूबकर गाता है व भाव अभिव्यक्ति करता है,अलाप ताने अपनी उसी समय आई उपज के द्वारा करता है,तो तबला वादक केवल ठेका देकर ही उसे गाने का पूर्ण अवसर देता है।वह गाने का मूड बनाने के लिए सम पर आने से पूर्व 2 या 4 मात्राओं में कुछ सुंदर बोल लगाकर सम पर आता है।तो वह गायक को गाने एवं श्रोताओं को गंभीरतापूर्वक सुनने का अवसर प्रदान करता है इसके पश्चात जब गायक तबला वादक को इशारा करता है तो अपनी कला के द्वारा अपनी तैयारी प्रस्तुत कर तबला वादन करता है।पुनःजब वह सम पर आता है तब वास्तव में वह प्रशंसा का पात्र होता है। इसी प्रकार जब ठुमरी ग़ज़ल या भजन आदि की प्रस्तुति होने पर तबला वादक जब सुंदर-सुंदर मुखड़े लगाता है व अपनी तैयारी लग्गी, रेला एवं बांट लगाकर चौगुन आदि में बजाकर एवं उन्हीं बोलो की तिहाई लगाकर सम पर आता है,तो आनंद की अभिवृद्धि करने में तबला वादक सफल माना जाता है। वास्तव में तबला भी जब गायक के साथ अपने तबले से गाता है तो वही वास्तविक संगत मानी जाती है।अनुराग वर्मा ने बताया कि तबले में बोलो की सफाई यानी स्पष्ट बोल निकासी ही तबले में चार चांद लगाती है। कठिन बोल धिर-धिर किटतक आदि का प्रयोग भी यदि करें तो उनमें भी स्पष्टता हो।साथ ही घराने दार सरल बोल और गायन की खूबसूरती बढ़ाने वाले बोल बजाकर ही संगत करनी चाहिए।